साँझ ढले परछाइयों की मानिंद
उम्मीद के दरख्तों से
मायूस सी उतर आती है
ं
तलाशती हैं
अंधेरों में गुम होते वज़ूद अपने
े
ख्वाहिशें खुद ही खुद से
कर लिया करती हैं सारी बाते
ं
टकराकर लौट आती हैं
वापस नाउम्मीद
उनकी आवाज़ें जाने कितनी
उम्मीद के दरख्तों से
मायूस सी उतर आती है
ं
तलाशती हैं
अंधेरों में गुम होते वज़ूद अपने
े
ख्वाहिशें खुद ही खुद से
कर लिया करती हैं सारी बाते
ं
टकराकर लौट आती हैं
वापस नाउम्मीद
उनकी आवाज़ें जाने कितनी
बेज़ुबान तो नहीं
पर अहसास ही गुम हैं शायद
बड़ी ज़िद्दी सी होती हैं
कुछ खामोशियाँ.............!!
----प्रियंका ै
पर अहसास ही गुम हैं शायद
बड़ी ज़िद्दी सी होती हैं
कुछ खामोशियाँ.............!!
----प्रियंका ै
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