Wednesday 5 February 2014

परिवर्तन


चेहरों के सच दिखते थे
मन के उन आइनों में
ना तो वो चेहरे ही रहे अब
ना आईने ही पहले से
सब कुछ तो परिवर्तित होता
समय बदलते देर कहाँ लगती है

वो फूल और तितली का साथ
जैसे कल की ही हो बात
खुशियों में बस हँसते रहना
भर आये जब तक न आँख
कल के अपने आज गैर से
संवेदन बदलते देर कहाँ लगती है

जीवन के इस रंगमंच पर
कितने नाटक अभिनीत हुए
पृथक हो गए पात्र सभी
संवाद सभी विस्मृत से हुए
अंत सदा ना सुखान्त हुए
हृदय बदलते देर कहाँ लगती है

©प्रियंका

4 comments:

  1. सत्य को वर्णित करती हुई सुन्दर रचना। बधाई

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  2. Satyam, shivam sunderam, bahut khoob....

    जब से इन्सान को चेहरों से तोलने लगे हैं।
    इस बाज़ार के आर्इने झूठ बोलने लगे हैं।
    हुकमसिंह ज़मीर

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    1. आभार टिप्पड़ी हेतु हुकम सिंह सर

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