Thursday 13 November 2014

तुम ही थे


तुम ही थे

कुछ बंद किताबों के पन्ने
फिर फिर से जैसे खुल जाए
आखर आखर बन सरगम ज्यो
प्राणों में आकर घुल जाए
नयनो की मोहक चितवन में
कोई और नहीं तुम ही थे

महकी महकी सी साँसों में
तेरी मोहक खुशबू बस जाए
हरपल पलछिन रात और दिन
यादे तेरी सज सज जाएँ
सपनो के खिलते गुलशन में
कोई और नहीं तुम ही थे

श्वाँस श्वाँस मधुरिम स्पंदन ले
मन चातक कुछ भी न कह पाए
नयनो की मधुरिम भाषा सुन
विस्मित अधर मूक से रह जाए
जो तस्वीर बसी मन दर्पण में
कोई और नहीं तुम ही थे
------प्रियंका े

Thursday 31 July 2014

दिन


दिन
कतरा कतरा पिघलता है
लम्हा लम्हा ढलता है दिन
बंद आंखों के चंद ख्वाब की तरह
रोज ही बनता बिगडता है दिन

किसी भटके मुसाफिर की तरह
रोज उन्हीं गलियारों से गुजरता है दिन

कभी सुस्त कदमों से
कभी वक्त से बहुत तेज
जाने कयूं कहां कहां भटकता है दिन

सुरमई सी सुबह धूप तेज दुपहरी की
या शर्मीली सांझ से
चंद लम्हे बटोरता है दिन

बेचैन सा फिरता है
चैन कहां हासिल उसको
तमाम बंद किताबों को
रोज खोलता पढता है दिन

सांझ गए
किनारे झील के खामोशी से
गम और खुशी के
तमाम पल फिर गिनता है दिन

हर पहर छुडा लेता है हाथ
बारी बारी से
फिर भी मुस्कुराता टहलता है दिन

यूं ही तो नहीं गुजर जाया करता
अपनों की तल्खियों से
थक कर जब टूटता है
तब डूबता है दिन............................

-----प्रियंका

Saturday 19 July 2014

श्रम ताप हरो मन का आकर
सुख सुषमा के पावन दिनकर
अब क्लान्त जगत को श्रान्त करो
नव किरण बिखेरो रजनी हर

शुचि प्रेम सुधा पावन भर दो
झलके स्मित अधरों पर मर्मर
आतप्त करो जलते मन को
करुणामय हस्त वरद धर कर

अस्ताचल सूरज चंद्र उदित
हो स्तब्ध सांझ रजनी प्रमुदित
जीवन को अनगिन रूप दिए
पर अंत तुम्ही सबकुछ नश्वर

नक्षत्र यहां जलते झिलमिल
शशि निशि की भी पलकें तंद्रिल
बन सुखद स्वप्न मन में विचरो
संतृप्त करो शीतलता भर
-------प्रियंका

Saturday 28 June 2014

मृत्युंजय भगवान शिव के चरणों में अर्पित
पञ्च चामर छंद
रगड़+जगड+रगड़+जगड+रगड़+ गुरु
अर्थात-
12 12 12 12 12 12 12 12
fathers day पर अपने शिव भक्त पापा के लिए

महाकराल कंठ नाग रौद्ररूप को धरे
पिनाक धारि के सदा अकाल काल को हरे
सदा रहे शिवोन्मुखी न पाप ताप सों जरे
प्रभो बिसारि मोह मान दीन वंदना करे

प्रचंड वेग गंग की जटा गुथी रहे रजे
गले सुहाय मुंडमाल भाल चंद्रमा सजे
कराल कालरुद्र रूप मान देवता भजे
अपार रूपराशि देख लाख चंद्रमा लजे

त्रिनेत्र क्रोध ताप बीच कामदेव भी जरा
धराधरेन्द्र नंदिनी बनी प्रिया उन्हें वरा
हुआ परास्त काल तो प्रचंड दैत्य भी डरा
विमोह मान त्याग के सती पिता तभी तरा

भजूं शिवा शिवो प्रभो अपार बंध को हरो
विराग द्वेष मेटि के सप्रेम भाव को भरो
बिसारि पाप मोर दास मान दोष ना धरो
कहां बुलाय के जपूं हिया सदा बसा करो
-------प्रियंका
 — with Vinod Tripathi.

Tuesday 3 June 2014

दौर

जैसे आये थे चुपचाप किसी मोड़ पर मुड़ जायेंगे
बुरे दौर हैं आये थे कुछ ठहरेंगे फिर गुज़र जायेंगे

गुज़रते रहना ही तो फितरत है वक्ते दरिया की
आज बिगड़े हैं पल ख़ुद ही कल सवंर जायेंगे

बंधे हों जंजीरों में तो कैसे वो अपने सच्चे रिश्ते
ग़र अपने हुए तो बताओ भला और किधर जायेंगे

लेके आयी है कुछ किरणें झिलमिल रौशनी संग में
बहुत मुमकिन है उजाले कुछ देर और ठहर जायेंगे

बहुत उम्मीद से आये है आज कुछ मांगने दर पर तेरे
होकेर मायूस बता दे अब किस और शहर जायेंगे
-----प्रियंका

Wednesday 21 May 2014

सागर-----
तुम विशाल, निर्बंध, शान्त, गम्भीर
सदैव तुम्हारी सीमाहीन सत्ता में
अपनी लघुधारा अर्पण की है
परन्तु तुम्हारे निर्दय थपेडों से
हर बार आहत ही हुई हूं

कैसा ये हठ है जो हार नहीं मानता
एक नया संकल्प लिए
हर बार निकल पडता है
अंजुरी में मधुर संगीत और समर्पण लिए

तुम्हारा वैराट्य गम्भीरता शान्ति
छल जाती है हर बार

कभी शबरी की श्रद्धा
कभी सुजाता की पूजा बन
विसर्जित होना चाहती हूं
परन्तु अंजुरी का सम्पूर्ण प्रसाद
आहत और चूर चूर हो जाता है
 बेपरवाह लहरों से टकराकर

समझ ही नहीं पाती
अपने व्यक्तित्व की सम्पूर्ण मिठास
तुम्हें अर्पण कर के भी
क्यों दूर नहीं कर पाती तुम्हारा खारापन
क्यों नहीं बना पाती मीठी
तुम्हारी एक भी बूंद..................
                    -------प्रियंका



Thursday 8 May 2014

सुन्दर दूरी साथ रहे

अभीप्सित नहीं स्नेह इतना
कि ताजमहल में कम्पन हो
साथ चलें हर पग पर हम
फिर भी सुन्दर दूरी साथ रहे


सुघर पारखी बन कर तुमने
ये जीवन कंचन कर डाला
सम्पूर्ण बने न जीवन मेरा
पारस की सदा ही आस रहे


नियति साथ चलती है सबके
भाग्य रचाए खेल अनेक
बाद दिवस की कड़ी धूप के
बस स्वप्निल संध्या साथ रहे

तुम मन मानस के देव बने
बस इतना सा वर दे देना
पूरी न हो आस सभी
अधूरी ही मन चाही साध रहे
                 ------
प्रियंका 

Friday 2 May 2014

एक दिन सुबह तो होगी ही

ढलती सांझ हल्का धुंधलका
शून्य का ओर छोर
अशेष प्रश्न उत्तर मौन
धीरे धीरे बीतता एक और दिन
अस्त होने को अकुलाता
हथेली पर रखा सूरज

कहां सूख जाती है
अपने हिस्से की हवा और पानी
सपने एक मुट्ठी सुख लेकर
सहलाते हैं भविष्य का माथा
पर चकनाचूर हो जाते हैं
सच्चाई के पत्थरों से टकराकर
मंजिल तक कहां ले जा पाती है
छिछले पानी की नाव

सूरज अस्त तो होगा ही
पर फिर उगेगा
दिखता है किरणों का
सतरंगी जाल धुंध के पार

उदय होगा अवसाद की
तलहटी से शिशु सूर्य
झिलमिल रोशनी से छंटेगी धुंध
आज सांझ छुपा ले सूरज
 रात तो ढलनी ही है
रात कितनी भी लम्बी हो
पर एक दिन सुबह तो होगी ही
है ना.....................
             -----प्रियंका



Thursday 24 April 2014

घन मेघ सांवरे

घन मेघ सांवरे उड कर तुम
बाबा की नगरी भी जाना
संग अपने तुम थोडा सा
इन आंखों का पानी भी ले जाना

पापा से कहना स्वस्थ रहें
भइया का मार्ग सदा प्रशस्त रहे
भाभी का सौभाग्य अक्षत रहे
मुन्ने को आशीर्वचन तुम दे आना

मत कहना उनसे दर्द कोई
 कहना मै तो रानी सी हुई
बस मेरी सारी खुशियों की
अच्छे से खबर तुम दे आना

बागों के उन झूलों की
बचपन के खेल खिलौनों की
उन बिछडी सारी सखियों की
खोज खबर तुम ले आना

माटी की सोंधी खुशबू लाना
मां पापा का सारा प्यार दुलार
कुछ बचपन की यादें लाना
आते आते फिर एक बार
भइया की कलाई भी छूकर आना

घन मेघ सांवरे उड कर तुम
बाबा की नगरी भी जाना
संग अपने तुम थोडा सा
इन आंखों का पानी भी ले जाना..........प्रियंका