Sunday 1 March 2015

मुुुक्तक

छलनाएं फैलीं हैं चहुँ दिश जीवन के इन विस्तारों में
मोल कहाँ लगता स्नेहों का स्वारथ के इन व्यापारों में
निश्छल मन के पावन बंधन टूट टूट के बिखर रहे हैं
रीते हाथ लिए फिरते सब संबंधों के इन बाज़ारों में

अहसास बस ख्यालों में जाने कब उतर जाते हैं
कुछ हमख्याल ख्यालों से ही और करीब आते है
जुड जाते है नाते गमों और खुशियों से अनजाने में
दोस्त जब हमख्याल बन ख्यालों में मुस्कुराते हैं

बूंदों से झिलमिल हैं अंखियों के कोर
सुन्न चुप्पियों में एक अस्फुट सा शोर
सीली संवेदना के कुछ सुलगते है तंतु
बावरे नयन खोजे टूटे सपनो के छोर

तुझमे ही शामिल हूँ पहचान ले यारब मुझको
नफरतों में ही सही तेरे वजूद का हिस्सा हूँ मैं
भुला सका न तमाम कोशिशों में भी तू जिसको
तेरे अहसासात ख़यालात का वो किस्सा हूँ मैं

आ ए ज़िन्दगी फिर रुला दे बेसबब मुझको
बहूत दिनों से इन आँखों की नमी गायब है
तू भी तो मजबूर है चंद लकीरों के आगे
तेरा भी फ़र्ज़ निभाना अपना बड़ा जायज़ है

निर्धारित जब सृजन सर्वदा पाप पुन्य का बंधन कैसा
सत्य सर्वथा जीवन होता स्वप्नों का मिथ्या क्रंदन कैसा
कण कण में रहता बसता वो सभी मधुर मुस्कानों में
भर नयनों में अश्रु किसी के मंदिर में पूजन अर्चन कैसा


1 comment:

  1. बूंदों से झिलमिल हैं अखियों के कोर...सीली संवेदनाओं के कुछ सुलगते हैं तंतु ....बहुत खूबसूरत... सुन्न चुप्पियों मैं अस्फुट सा शोर .....गहनता हैं संवेदनाओं मैं ...वाह

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