मन के उन आइनों में
ना तो वो चेहरे ही रहे अब
ना आईने ही पहले से
सब कुछ तो परिवर्तित होता
समय बदलते देर कहाँ लगती है
वो फूल और तितली का साथ
जैसे कल की ही हो बात
खुशियों में बस हँसते रहना
भर आये जब तक न आँख
कल के अपने आज गैर से
संवेदन बदलते देर कहाँ लगती है
जीवन के इस रंगमंच पर
कितने नाटक अभिनीत हुए
पृथक हो गए पात्र सभी
संवाद सभी विस्मृत से हुए
अंत सदा ना सुखान्त हुए
हृदय बदलते देर कहाँ लगती है
©प्रियंका
सत्य को वर्णित करती हुई सुन्दर रचना। बधाई
ReplyDeletethnx Abhi :)
DeleteSatyam, shivam sunderam, bahut khoob....
ReplyDeleteजब से इन्सान को चेहरों से तोलने लगे हैं।
इस बाज़ार के आर्इने झूठ बोलने लगे हैं।
हुकमसिंह ज़मीर
आभार टिप्पड़ी हेतु हुकम सिंह सर
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