कहां तुम्हें खोजूं मैं कृष्णा
तुम्हीं बताओ कहां नहीं तुम
न तप में हो न जप में हो तुम
न धरा पे हो न नभ में हो तुम
न ग्यान में हो न ध्यान में हो
न मिथ्या भक्ति के अभिमान में तुम
तुम्हें ये जग खोजे क्यूं सदा ही
जग के कण कण प्राण में हो तुम
सकल जगत में हो तुम समाए
कहां मैं खोजूं कहां नहीं तुम
रचा है एक राधा का भाग्य तुमने
जिसमें होकर भी संग नहीं तुम
न व्रज की गलियों में तुम दीखे
न डालों पर कदम्ब के हो तुम
न द्वारका के आसन पर विराजे
न गोपियों के संग में हो तुम
न कर्मभूमि न कुंज गलियां
न ही गीता के ज्ञान में हो तुम
सकल जगत है तेरी खोज करता
प्रेम भरे मन में ही हो तुम
कहती है दुनिया राधेश्याम देखो
कहीं भी मुझसे पृथक नहीं तुम
यही तो मेरा है भाग्य कृष्णा
अगर कहीं हो तो हो बस यहीं तुम.
Bahut komal aur masumiyat se purn rachna...!
ReplyDeleteआभार अभिलेख जी।
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteधन्यवाद् अभि...।
Deletesampurn bhaw liye man ko chhuti hui rachna ke liye badhai
ReplyDeleteहार्दिक आभार सुरेश दादा।
Deleteबेहतरीन, अभिव्यक्ति
ReplyDeleteसच मे कोमल सी रचना ...
आभार मुकेश जी
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