मैं शिलाखंड पाषाण खंड
क्या अबला बेचारी हूँ
एक अहल्या नाम दिया
पर फिर भी तो मैं नारी हूँ
अंधकूप सी शापित काया मेरी
युगों युगों से थी अवचेतन
प्राणमयी रज प्रभु चरणों की
पाकर हो बैठी हूँ मैं सचेतन
प्रभु कैसे मैं आभार करूँ
कुछ मेरी भी तुम सुन लेते
न्याय की प्रतिमूर्ति कहाते
मेरे दोषों को मुझसे कहते
कैसा यह संसार रचा है
कितने अन्याय ये करता है
अन्यायी भी स्वयं रहे
पर न्याय स्वयं ही करता है
छल सतीत्व को लांछित करता
पतित्व का दर्प पाषाण बना बैठे
तुम उद्धारक महिमा मंडित हो
एक इतिहास नया बना बैठे
किसने पापी ठहराया शापित कारावास दिया
किसने फिर पुनः पुनः मुक्ति का वरदान दिया
नियति के बल पर विधान कौन ये रचता है
अपनी यश्माला में रत्न नए नित जड़ता है
हे परमेश्वर पति तुम भी सुनो
कुछ प्रश्न आज मैं लायी हूँ
सदियों से पाषद बनी थी
कुछ भी न कह पायी हूँ
हे त्रिकालदर्शी महातपस्वी
मेरा भविष्य क्यों सके न बांच
मेरे सतीत्व की कयो न रक्षा
कैसे आई उस पर आंच
मर्यादा के जल से दिया श्राप
प्रज्ञा ने तब क्यों न रोका
क्रोध के उस आवेश को तब
सप्तपदी ने क्यों ना टोका
सामीप्य तुम्हारा फिर पाकर
तुम्हारे बिम्ब अनेक उभरते हैं
सोयी जड़ता जब पिघल गयी
तब प्रश्न अनेक विचरते है
पाषाण प्रश्न की यह ध्वनियाँ
नभमंडल में मुखरित होती हैं
पर आज भी अहिल्या बहु रूपों में
छल बल से शापित होती है
-----प्रियंका
बहुत khoob... प्रियंका... :)
ReplyDeletethnx mam
ReplyDeletenaari tum hi paalan haari :)
ReplyDeletekya khub likhte ho aap !!
thnx Mukesh ji
Deleteबहुत खूब बहुत ही लाज़वाब अभिव्यक्ति आपकी। बधाई
ReplyDeleteएक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''मार डाला हमें जग हँसाई ने''
आभार अभिषेक।
DeleteAwesome didi..
ReplyDeletethnx Ritesh
Deletewaaaaaaaaaaah
ReplyDeletethnx Ashutosh sir
Deleteअप्रतिम
ReplyDeleteनारी के बिना अधुरा नर
ReplyDeleteफिर स्वयम शापित हो जाता है।
क्रोध अकारण नहीं आता। आता है तो पहले स्वयम को जलाता है। फिर अग्नि बरसाता है।
उसका परिणाम जलने ओर जलाने वाले दोनों को भुगतना पड़ता है। गौतम जैसे ब्रह्म ज्ञानी भी भ्रमित हो सकते है। हम तो साधारण मानव है।
आप की प्रस्तुति नारी के प्रति अत्यंत संवेदना पूर्ण है।
bahut sundar ....
ReplyDelete