ढलती सांझ हल्का धुंधलका
शून्य का न ओर न छोर
अशेष प्रश्न उत्तर मौन
धीरे धीरे बीतता एक और दिन
अस्त होने को अकुलाता
हथेली पर रखा सूरज
कहां सूख जाती है
अपने हिस्से की हवा और पानी
सपने एक मुट्ठी सुख लेकर
सहलाते हैं भविष्य का माथा
पर चकनाचूर हो जाते हैं
सच्चाई के पत्थरों से टकराकर
मंजिल तक कहां ले जा पाती है
छिछले पानी की नाव
सूरज अस्त तो होगा ही
पर फिर उगेगा
दिखता है किरणों का
सतरंगी जाल धुंध के पार
उदय होगा अवसाद की
तलहटी से शिशु सूर्य
झिलमिल रोशनी से छंटेगी धुंध
आज सांझ छुपा ले सूरज
रात तो ढलनी ही है
रात कितनी भी लम्बी हो
पर एक दिन सुबह तो होगी ही
है ना.....................
-----प्रियंका
WAAAAAAAAAAAH, BAHUT SUNDER. SADHUWAD.
ReplyDeleteबहुत मनोहर चित्र उकेरती रचना।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर है प्रिय दी
ReplyDeletewell said sis
ReplyDeleteअति सून्दर रचना
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