कतरा कतरा पिघलता है
लम्हा लम्हा ढलता है दिन
बंद आंखों के चंद ख्वाब की तरह
रोज ही बनता बिगडता है दिन
किसी भटके मुसाफिर की तरह
रोज उन्हीं गलियारों से गुजरता है दिन
रोज उन्हीं गलियारों से गुजरता है दिन
कभी सुस्त कदमों से
कभी वक्त से बहुत तेज
जाने कयूं कहां कहां भटकता है दिन
कभी वक्त से बहुत तेज
जाने कयूं कहां कहां भटकता है दिन
सुरमई सी सुबह धूप तेज दुपहरी की
या शर्मीली सांझ से
चंद लम्हे बटोरता है दिन
या शर्मीली सांझ से
चंद लम्हे बटोरता है दिन
बेचैन सा फिरता है
चैन कहां हासिल उसको
तमाम बंद किताबों को
रोज खोलता पढता है दिन
चैन कहां हासिल उसको
तमाम बंद किताबों को
रोज खोलता पढता है दिन
सांझ गए
किनारे झील के खामोशी से
गम और खुशी के
तमाम पल फिर गिनता है दिन
किनारे झील के खामोशी से
गम और खुशी के
तमाम पल फिर गिनता है दिन
हर पहर छुडा लेता है हाथ
बारी बारी से
फिर भी मुस्कुराता टहलता है दिन
बारी बारी से
फिर भी मुस्कुराता टहलता है दिन
यूं ही तो नहीं गुजर जाया करता
अपनों की तल्खियों से
थक कर जब टूटता है
तब डूबता है दिन............................
अपनों की तल्खियों से
थक कर जब टूटता है
तब डूबता है दिन............................
-----प्रियंका