Friday 2 May 2014

एक दिन सुबह तो होगी ही

ढलती सांझ हल्का धुंधलका
शून्य का ओर छोर
अशेष प्रश्न उत्तर मौन
धीरे धीरे बीतता एक और दिन
अस्त होने को अकुलाता
हथेली पर रखा सूरज

कहां सूख जाती है
अपने हिस्से की हवा और पानी
सपने एक मुट्ठी सुख लेकर
सहलाते हैं भविष्य का माथा
पर चकनाचूर हो जाते हैं
सच्चाई के पत्थरों से टकराकर
मंजिल तक कहां ले जा पाती है
छिछले पानी की नाव

सूरज अस्त तो होगा ही
पर फिर उगेगा
दिखता है किरणों का
सतरंगी जाल धुंध के पार

उदय होगा अवसाद की
तलहटी से शिशु सूर्य
झिलमिल रोशनी से छंटेगी धुंध
आज सांझ छुपा ले सूरज
 रात तो ढलनी ही है
रात कितनी भी लम्बी हो
पर एक दिन सुबह तो होगी ही
है ना.....................
             -----प्रियंका



7 comments:

  1. WAAAAAAAAAAAH, BAHUT SUNDER. SADHUWAD.

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  2. बहुत मनोहर चित्र उकेरती रचना।

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  3. बहुत ही सुन्दर है प्रिय दी

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  4. अति सून्दर रचना

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