Tuesday 1 April 2014

पाषाण प्रश्न

मैं शिलाखंड पाषाण खंड क्या अबला बेचारी हूँ एक अहल्या नाम दिया पर फिर भी तो मैं नारी हूँ अंधकूप सी शापित काया मेरी युगों युगों से थी अवचेतन प्राणमयी रज प्रभु चरणों की पाकर हो बैठी हूँ मैं सचेतन प्रभु कैसे मैं आभार करूँ कुछ मेरी भी तुम सुन लेते न्याय की प्रतिमूर्ति कहाते मेरे दोषों को मुझसे कहते कैसा यह संसार रचा है कितने अन्याय ये करता है अन्यायी भी स्वयं रहे पर न्याय स्वयं ही करता है छल सतीत्व को लांछित करता पतित्व का दर्प पाषाण बना बैठे तुम उद्धारक महिमा मंडित हो एक इतिहास नया बना बैठे किसने पापी ठहराया शापित कारावास दिया किसने फिर पुनः पुनः मुक्ति का वरदान दिया नियति के बल पर विधान कौन ये रचता है अपनी यश्माला में रत्न नए नित जड़ता है हे परमेश्वर पति तुम भी सुनो कुछ प्रश्न आज मैं लायी हूँ सदियों से पाषद बनी थी कुछ भी न कह पायी हूँ हे त्रिकालदर्शी महातपस्वी मेरा भविष्य क्यों सके न बांच मेरे सतीत्व की कयो न रक्षा कैसे आई उस पर आंच मर्यादा के जल से दिया श्राप प्रज्ञा ने तब क्यों न रोका क्रोध के उस आवेश को तब सप्तपदी ने क्यों ना टोका सामीप्य तुम्हारा फिर पाकर तुम्हारे बिम्ब अनेक उभरते हैं सोयी जड़ता जब पिघल गयी तब प्रश्न अनेक विचरते है पाषाण प्रश्न की यह ध्वनियाँ नभमंडल में मुखरित होती हैं पर आज भी अहिल्या बहु रूपों में छल बल से शापित होती है -----प्रियंका

13 comments:

  1. बहुत khoob... प्रियंका... :)

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  2. बहुत खूब बहुत ही लाज़वाब अभिव्यक्ति आपकी। बधाई

    एक नज़र :- हालात-ए-बयाँ: ''मार डाला हमें जग हँसाई ने''

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  3. नारी के बिना अधुरा नर
    फिर स्वयम शापित हो जाता है।
    क्रोध अकारण नहीं आता। आता है तो पहले स्वयम को जलाता है। फिर अग्नि बरसाता है।
    उसका परिणाम जलने ओर जलाने वाले दोनों को भुगतना पड़ता है। गौतम जैसे ब्रह्म ज्ञानी भी भ्रमित हो सकते है। हम तो साधारण मानव है।
    आप की प्रस्तुति नारी के प्रति अत्यंत संवेदना पूर्ण है।

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